Sunday 19 January 2020

कल लहू...

कल लहू के सामने लहू जो बह गया
ज़बान से फिसलकर मैं उर्दू जो बन गया
ना मुझे दिलों दिमाग का हिसाब ना उम्र की पहचान
आने वाले कल के सपनों मे झूमता  मैं भीड़ बन गया

माँ की खामोशी को यकीन समझकर
अब्बा की हँसी को मैं दोस्ती समझकर
खुद के ख़यालों की बेबसी को भुलाकर
मैं अवाम की पर्दादारी मे लीडर जो बन गया
कल लहू के सामने मैं लहू जो बन गया.

कहते रहे तुम की इधर के हो या उधर
मेरी शकल मे उन्हें कुछ आया नहीं नज़र
कल तक दुबारा मुड़के देखे नहीं जिधर
मैंने उस मकान से आज रिश्ता बना लिया
कल लहू के सामने लहू बदल गया

मेरे कपड़ों को देखकर तुम्हें क्या पता लग गया?
मेरी कहानी के तुम्हें क्या मुनाफा दिख गया!?
भीड़ मे बस मैं, बस मैं ही नहीं था
मुझसे बेहतर लड़ने वाला और कमज़ोर भी तो था
लेकिन लहू के सामने मैं बस लहू ही रह गया

मेरे वज़ूद की पहेली मे गुम मैं नादान हूं
परेशान अतीत के वतन मैं तेरा इंकलाब हूं
मेरे कल और आज और कल का मैं इत्मीनान हूं
मेरे सड़क के भाई मैं बस एक इत्तेफाक हूं
फर्क़ यही रहा के मैं बेबाक बन गया
नाक मे दम करने वालों की शांति मे खुराफात कर गया
सब की कहानी सुनने वाला कलाकार बन गया
मैं आगाज़ बनना चाहा, आवाज बन गया
कल लहू के सामने लहू बन के बह गया.

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