Monday, 28 March 2016

देर आये ...

देर आये - 
वक़्त से वक़्त मांगकर,
कुछ अनगिनत सपनो से सहूलियत मिलने पर,
नयी मुस्कानों की आस से पले, जैसे कोई अनकहे राज़ के मालिक.
थोड़े थके, थोड़े बेचैन,
आखों में कुछ पुराने दोस्तों से किये वादे लेकर -देर आये.

आखिर हज़ारों रस्तों से तुमको चुनना था
आखिर ठोकरें खाकर इसी दर पर मरना था
बिना मिले जो तुमने ये रंग कुछ भेजे थे आसमान तले,
उनकी बेवक़्त छीटों से मिलने इसी मकान में आना था.
लेकिन तुम देर आये. 

डर है ये आखें देखना भूल गयी हैं अब वह सपने जिनसे सिर्फ घाव मिले हैं.
डर है मुस्कुराने मे कि कहीं इसके अनुमानों में कोई और न खो जाये. 
डर है वादे करने में कि कहीं कोई हिसाब रख रहा होगा मेरे जान बूझकर टूटने वाले वादे देने का.
डर है कि तुम जब आओगे तोह मैं पहचान न पाउन तुम्हे, अपने आप को.
हमारी उस कहानी को जो एक पन्ने के दोनों तरफ इतनी बेपरवाही से लिख दिया गया था
कि स्याही के निशान एक दूसरे में घुल गए लेकिन कहानी का कोई अंजाम न बना.

अब तुम देर आये हो.

कुछ वक़्त दो.

देखते हैं शायद एक प्याली चाय की,

वक़्त की करामात पलट सके?

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